जख्म कितना भी हो, दर्द होता ही नहीं ।
मंजिले - ए दूर हो या दुर्गम-ए-राह हो ,
साथ संगीन हो, या हाथ मे हाथ हो
पथ पर फूल हो, पर रात सोता ही नही
जख्म कितना भी दो, दर्द तो होता ही नहीं ।।
दैव दुर्दिन दिखाए, या खेलाए खून की होली
साथ मे कफन हो या हाथ रंगीन चोली
रात बीते न बीते सबेरा होता ही नही
जख्म कितना भी हो, दर्द होता ही नहीं ।।
लडखडाते पाॅव तले खडे हो तीर तीखे
मौत का खौफ नहीं प्राण चीखे न चीखे
आप मानो न मानो, दिल रोता ही नहीं
जख्म कितना भी ही पर दर्द होता ही नहीं ।।
राजेंद्र मिश्रा
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