निर्झरिणी बह रही निरंतर
कंकड पत्थर पर चल-चल कर ।।
नहीं कभी पीछे मुडती है
सदा अग्रसर ही रहती है
बादल से जल ले लेकर
सागर तक ढोती रहती है
बिना थके काट रही है
पर्वत से सागर का अंतर ।
निर्झरिणी बह रही निरंतर
कंकड पत्थर पर चल- चल कर ।।
तट की हरियाली ललचाती
लेकिन उसे रोक न पाती
दृढ निश्चय से आगे बढती
कल- कल छल- छल का रव करती
कुसुमित कूल सुमन सुंदर
निर्झरिणी बह रही निरंतर
कंकड पत्थर पर चल- चल कर ।।
राजेंद्र प्रसाद मिश्र
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