Wednesday, July 21, 2021

श्रीराम तांडव स्त्रोत्रं इंद्रादयो ऊचु: :- जटाकटाहयुक्तमुण्डप्रान्तविस्तृतम् हरे:अपांगक्रुद्धदर्शनोपहार चूर्णकुन्तलः।प्रचण्डवेगकारणेन पिंजलः प्रतिग्रहःस क्रुद्धतांडवस्वरूपधृग्विराजते हरि: ।।1।।अथेह व्यूहपार्ष्णिप्राग्वरूथिनी निषंगिनः तथा आंजनेय ऋक्षभूपसौरबालिनन्दना:। प्रचण्डदानवानलं समुद्र तुल्यनाशका:नमोऽस्तुते सुरारिचक्रभक्षकाय मृत्यवे।।2।। कलेवरे कषायवासहस्तकार्मुकं हरे:उपासनोपसंगमार्थधृग्विशाखमंडलम्।हृदि स्मरन् दशाकृते: कुचक्रचौर्यपातकम्विदार्यते प्रचण्डतांडवाकृतिः स राघवः ॥3॥प्रकाण्डकाण्डकाण्डकर्मदेहछिद्रकारणम्कुकूटकूटकूटकौणपात्मजाभिमर्दनम्।तथागुणंगुणंगुणंगुणंगुणेन दर्शयन्कृपीटकेशलंघ्यमीशमेकराघवं भजे ॥4॥ सवानरान्वितः तथाप्लुतम् शरीरमसृजाविरोधिमेदसाग्रमांसगुल्मकालखंडनैः।महासिपाशशक्तिदण्डधारकै: निशाचरै:परिप्लुतं कृतं शवैश्च येन भूमिमंडलम् ॥5॥विशालदंष्ट्रकुम्भकर्णमेघरावकारकै:तथाहिरावणाद्यकम्पनातिकायजित्वरै:।सुरक्षितां मनोरमां सुवर्णलंकनागरीम्निजास्त्रसंकुलैरभेद्यकोटमर्दनं कृतः ।।6।।प्रबुद्धबुद्धयोगिभिः महर्षिसिद्धचारणै:विदेहजाप्रियः सदानुतो स्तुतो च स्वस्तिभिः।पुलस्त्यनंदनात्मजस्य मुण्डरुण्डछेदनंसुरारियूथभेदनं विलोकयामि साम्प्रतम् ॥७॥करालकालरूपिणं महोग्रचापधारिणं कुमोहग्रस्तमर्कटाच्छभल्लत्राणकारणम्।विभीषणादिभिः सदाभिषेणनेऽभिचिन्तकंभजामि जित्वरं तथोर्मिलापतेः प्रियाग्रजम।। 8।। इतस्ततः मुहुर्मुहु: परिभ्रमन्ति कौन्तिकाः अनुप्लव प्रवाहप्रासिकाश्च वैजयंतिका:।मृधे प्रभाकरस्य वंश कीर्तिनोऽपदानतांअभिक्रमेण राघवस्य तांडवाकृते: गताः।9॥ निराकृतिं निरामयं तथादिसृष्टिकारणंमहोज्ज्वलं अजं विभुं पुराणपूरुषं हरिम्। निरंकुशं निजात्मभक्त जन्ममृत्युनाशकं अधर्ममार्गघातकं कपीशव्यूहनायकम् ॥10॥करालपालिचक्रशूलतीक्ष्णभिंदिपालकै: कुठार सर्वलासिधेनुकेलिशल्यमुद्गरै:।सुपुष्करेण पुष्कराञ्च पुष्कर अस्त्रमारणै:सदाप्लुतं निशाचरै: सुपुष्करञ्च पुष्करम् ॥11॥ प्रपन्नभक्तरक्षकम् वसुन्धरात्मजाप्रियंकपीशवृंदसेवितं समस्तदूषणापहम्।सुरासुराभिवंदितं निशाचरान्तकम् विभुंजगद्प्रशस्तिकारणम् भजेह राममीश्वरम् ॥12॥

अथ श्री महिषासुरमर्दिनी स्त्रोत्रं

अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्द नुते
गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१॥

सुरवर वर्षिणि दुर्धर धर्षिणि दुर्मुख मर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शङ्करतोषिणि किल्बिष मोषिणि घोषरते।
दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥२॥

अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रिय वासिनि हासरते
शिखरि शिरोमणि तुङ्गहिमालय शृङ्गनिजालय मध्यगते।
मधुमधुरे मधुकैटभ गञ्जिनि कैटभ भञ्जिनि रासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥३॥

अयि शतखण्ड विखण्डित रुण्ड वितुण्डित शुंड गजाधिपते
रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रमशुण्ड मृगाधिपते।
निजभुजदण्ड निपातितखण्ड विपातितमुण्ड भटाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥४॥

अयि रणदुर्मद शत्रुवधोदित दुर्धरनिर्जर शक्तिभृते
चतुरविचार धुरीणमहाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते।
दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति दानवदुत कृतान्तमते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥५॥

अयि शरणागत वैरिवधुवर वीरवराभय दायकरे
त्रिभुवनमस्तक शुलविरोधि शिरोऽधिकृतामल शुलकरे।
दुमिदुमितामर धुन्दुभिनाद महोमुखरीकृत दिङ्मकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥६॥

अयि निजहुङ्कृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते
समरविशोषित शोणितबीज समुद्भव शोणित बीजलते।
शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥७॥

धनुरनुषङ्ग रणक्षणसङ्ग परिस्फुरदङ्ग नटत्कटके
कनकपिशङ्ग पृषत्कनिषङ्ग रसद्भटशृङ्ग हताबटुके।
कृतचतुरङ्ग बलक्षितिरङ्ग घटद्बहुरङ्ग रटद्बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥८॥

सुरललना ततथेयि तथेयि कृताभिनयोदर नृत्यरते
कृत कुकुथः कुकुथो गडदादिकताल कुतूहल गानरते।
धुधुकुट धुक्कुट धिंधिमित ध्वनि धीर मृदंग निनादरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥९॥

जय जय जप्य जयेजयशब्द परस्तुति तत्परविश्वनुते
झणझणझिञ्झिमि झिङ्कृत नूपुर शिञ्जितमोहित भूतपते।
नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटितनाट्य सुगानरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१०॥

अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोहरकान्तियुते
श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनी करवक्त्रवृते।
सुनयनविभ्रमर भ्रमरभ्रमर भ्रमरभ्रमराधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥११॥

सहितमहाहव मल्लमतल्लिक मल्लितरल्लक मल्लरते
विरचितवल्लिक पल्लिकमल्लिक झिल्लिकभिल्लिक वर्गवृते।
शितकृतफुल्ल समुल्लसितारुण तल्लजपल्लव सल्ललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१२॥

अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्ग जराजपते
त्रिभुवनभुषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते।
अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१३॥

कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामल भाललते
सकलविलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले।
अलिकुलसङ्कुल कुवलयमण्डल मौलिमिलद्बकुलालिकुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१४॥

करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिल मञ्जुमते
मिलितपुलिन्द मनोहरगुञ्जित रञ्जितशैल निकुञ्जगते।
निजगुणभूत महाशबरीगण सद्गुणसम्भृत केलितले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१५॥

कटितटपीत दुकूलविचित्र मयुखतिरस्कृत चन्द्ररुचे
प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नख चन्द्ररुचे।
जितकनकाचल मौलिमदोर्जित निर्भरकुञ्जर कुम्भकुचे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१६॥

विजितसहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते
कृतसुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते।
सुरथसमाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१७॥

पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत्।
तव पदमेव परम्पदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१८॥

कनकलसत्कल सिन्धुजलैरनु षिञ्चतितेगुण रङ्गभुवम्
भजति स किं न शचीकुचकुम्भ तटीपरिरम्भ सुखानुभवम्।
तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवम्
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१९॥

तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते
किमु पुरुहूतपुरीन्दु मुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥२०॥

अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे
अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथानुमितासिरते।
यदुचितमत्र भवत्युररी कुरुतादुरुता पमपाकुरुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥२१॥


शिव तांडव स्त्रोत्रं

जटा टवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम्‌ ॥१॥


जटाकटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वल ल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम: ॥२॥


धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुर स्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥


जटाभुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रव प्रलिप्तदिग्व धूमुखे।
मदांधसिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूत भर्तरि ॥४॥


सहस्रलोचन प्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरां घ्रिपीठभूः।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥


ललाटचत्वरज्वल द्धनंजयस्फुलिंगभा निपीतपंच सायकंनम न्निलिंपनायकम्‌।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥


करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल द्धनंजया धरीकृतप्रचंड पंचसायके।
धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्रपत्र कप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥


नवीनमेघमंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर त्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥


प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंचकालिमप्रभा विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥


अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌।
स्मरांतकं पुरातकं भवांतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥


जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुरद्ध गद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धि मिध्वनन्मृदंग तुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥


दृषद्विचित्रतल्पयो र्भुजंगमौक्तिकमस्र जोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः सम प्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥१२॥


कदा निलिंपनिर्झरी निकुंजकोटरे वसन्‌ विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥१३॥


निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥


प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥१५॥


इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहिनांं सुशङ्करस्य चिंतनम् ॥१६॥


पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनपरम् पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मिंं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१७॥

Monday, July 12, 2021

अपराजिता स्त्रोत्रम्

अथ श्री अपराजितास्तोत्रम्
नमोपराजितायै।
अस्याः वैष्णव्याः परायाः अपराजितायाः वामदेव-बृहस्पति-मार्कण्डेयाः ऋषयः, गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहतीछन्दान्सि, लक्ष्मीनरसिंहो देवता, ॐ क्लीं श्रीं ह्रीं बीजम्, हुं शक्तिः, सकलकामनासिद्ध्यर्थम् अपराजिताविद्यामन्त्रपाठे विनियोगः।
ध्यानम्
ॐ नीलोत्पलदलश्यामां भुजाङ्गाभरणान्विताम्।
शुद्धस्फटिकसङ्काशां चन्द्रकोटिनिभाननाम्।।1।।
शङ्खचक्रधरां देवीं वैष्णवीमपराजिताम्।
बालेन्दुशेखरां देवीं वरदाभयदायिनीम्।। 2।।
नमस्कृत्य पपाठैनां मार्कण्डेयो महातपाः।।3।।
मार्कण्डेय उवाच
शृणुश्व मुनयः सर्वे सर्वकामार्थसिद्धिदाम्।
असिद्धसाधनीं देवीं वैष्णवीमपराजिताम्।।3।।
ॐ नमो नारायणाय, नमो भगवते वासुदेवाय, नमोस्त्वनन्ताय सहस्रशीर्षाय, क्षीरोदार्णवशायिने, शेषभोगपर्य्यङ्काय, गरुडवाहनाय, अमोघाय , अजाय अजिताय, पीतवाससे।
ॐ वासुदेव सङ्कर्षण प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, हयग्रिव, मत्स्य कूर्म्म वराह, नरसिंह, अच्युत, वामन, त्रिविक्रम, श्रीधर, राम राम राम, वरद वरद वरदो भव, नमोस्तु ते, नमोस्तु ते स्वाहा।
ॐ असुर-दैत्य-यक्ष-राक्षस-भूत-प्रेत-पिशाच-कूष्माण्डसिद्धयोगिनी-डाकिनी-शाकिनी-स्कन्दग्रहान् उपग्रहान् नक्षत्रग्रहान् चान्यान् हन हन, पच पच, मथ मथ, विध्वंसय विध्वंसय, विद्रावय विद्रावय, चूर्णय चूर्णय, शङ्खेन चक्रेण वज्रेण शूलेन गदया मूसलेन, हलेन भस्मीकुरु कुरु स्वाहा।
ॐ सहस्रबाहो सहस्रप्रहरणायुध, जय जय, विजय विजय, अमित, अपराजित, अप्रतिहत, सहस्रनेत्र, ज्वल ज्वल, प्रज्वल प्रज्वल, विश्वरूप, बहुरूप, मधुसूदन, महावराह, महापुरुष, वैकुण्ठ, नारायण, पद्मनाभ, गोविन्द, दामोदर, हृषिकेश, केशव, सर्वासुरोत्सादन, सर्वभूतवशङ्कर, सर्वदुःस्वप्नप्रभेदन, सर्वयन्त्रप्रभञ्जन, सर्वनागविमर्दन, सर्वदेवमहेश्वर, सर्वबन्धविमोक्षण, सर्वाहितप्रमर्दन, सर्वज्वरप्रणाशन, सर्वग्रहनिवारण, सर्वपापप्रशमन, जनार्दन, नमोस्तुते स्वाहा।
विष्णोरियमनुप्रोक्ता सर्वकामफलप्रदा।
सर्वसौभाग्यजननी सर्वभीतिविनाशिनी।।5।।
सर्वैश्च पठितां सिद्धैर्विष्णोः परमवल्लभा।
नानया सदृशं किङ्चिद् दुष्टानां नाशनं परम्।।6।।
विद्या रहस्या कथिता वैष्णव्येषापराजिता।
पठनीया प्रशस्ता वा साक्षात् सत्वगुणाश्रया।।7।।
ॐ शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम्।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये।। 8।।
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि ह्यभयामपराजिताम्।
या शक्तिर्मामकी वत्स रजोगुणमयी मता।।9।।
सर्वसत्त्वमयी साक्षात् सर्वमन्त्रमयी च या ।
या स्मृता पूजिता जप्ता न्यस्ता कर्माणि योजिता।
सर्वकामदुघा वत्स शृणुष्वैतां ब्रवीमि ते।।10।।
य इमाम् अपराजितां परमवैष्णवीम् अप्रतिहतां पठति सिद्धां स्मरति सिद्धां महाविद्यां जपति पठति शृणोति स्मरति धारयति कीर्तयति वा न तस्याग्नि-वायु-वज्र-उपला-शनि-वर्षभयं न समुद्र-भयं न ग्रहभयं न चौर-भयं , न शत्रु-भयं, न शाप-भयं , वा भवेत्। क्वचिद् रात्र्यन्धकार-स्त्रीराजकुल-विद्वेषि-विषगर-गरद-वशीकरण-विद्वेषणो-च्चाटन-वधबन्धन-भयं वा न भवेत्। एतैर्मन्त्रैर् उदाहृतैः सिद्धैः संसिद्धपूजितैः।
ॐ नमोस्तु ते।
अभये, अनघे, अजिते, अमिते, अमृते, अपरे, अपराजिते, पठति सिद्धे, जपति सिद्धे, स्मरति सिद्धे, एकोनाशीतितमे, एकाकिनि, निश्चेतसि, सुद्रुमे, सुगन्धे, एकान्नशे, उमे, ध्रुवे, अरुन्धति, गयत्रि, सावित्रि, जातवेदसि, मानस्तोके, सरस्वति, धरणि, धारिणि,  सौदामिनि, अदिति, दिति, विनते, गौरि, गान्धारि, मातङ्गि, कृष्णे, यशोदे, सत्वादिनि, ब्रह्मवादिनि, कालि, कपालिनि, करालनेत्रे, भद्रे, निद्रे, सत्योपयाचनकरि, स्थलगतं जलगतम् अन्तरिक्षगतं वा मां रक्ष सर्वोपद्रवेभ्यः स्वाहा।
यस्याः प्रणश्यते पुष्पं गर्भो वा पतते यदि।
म्रियते बालको यस्याः काकवन्ध्या च या भवेत्।।11।।
धारयेद् या इमां विद्याम् एतैर्दौषैर् न लिप्यते।
गर्भिणी जीववत्सा स्यात् पुत्रिणी स्यात् न संशयः।।12।।
भूर्जपत्रे त्विमां विद्यां लिखित्वा गन्धचन्दनैः।
एतैर्दोषैर्न लिप्येत सुभगा पुत्रिणी भवेत्।।13।।
रणे राजकुले द्यूते नित्यं तस्य जयो भवेत्।
शस्त्रं वारयते ह्येषा समरे काण्डदारुणे।।14।।
गुल्मशूलाक्षिरोगाणां क्षिप्रं नाश्यति च व्यथाम्।
शिरोरोगज्वराणां न नाशिनी सर्वदेहिनाम्।।15।।
इत्येषा कथिता विद्या अभयाख्यापराजिता।
एतस्याः स्मृतिमात्रेण भयं क्वापि न जायते।।16।।
नोपसर्गा न रोगाश्च न योधा नापि तस्कराः।
न राजानो न सर्पाश्च न द्वेष्टारो न शत्रवः।।17।।
यक्षराक्षसवेताला न शाकिन्यो न च ग्रहाः।
अग्नेर्भयं न वाताच्च न समुद्रान् न वै विषात्।।18।।
कार्मणं वा शत्रुकृतं वशीकरणमेव च।
उच्चाटनं स्तम्भनं च विद्वेषणमथापि वा।।19।।
न किञ्चित् प्रभवेत्तत्र यत्रैषा वर्ततेभया।
पठेद् वा यदि वा चित्रे पुस्तके वा मुखेथवा।।20।।
हृदि वा द्वारदेशे वा वर्तते ह्यभयः पुमान्।
हृदये विन्यसेदेतां ध्यायेद् देवीं चतुर्भुजाम्।।21।।
रक्तमाल्यम्बरधरां पद्मरागसमप्रभाम्।
पाशाङ्कुशा-भयवरै-रलङ्कृत-सुविग्रहाम्।।22।।
साधकेभ्यः प्रयच्छन्तीं  मन्त्रवर्णामृतान्यपि।
नातः परतरं किञ्चिद् वशीकरणमुत्तमम्।।23।।
रक्षणं पावनं चापि नात्र कार्या विचारणा।
प्रतः कुमारिकाः पूज्याः खाद्यैराभरणै-रपि।
तदिदं वाचनीयं स्यात् तत्प्रीत्या प्रीयते तु माम्।।24।।
ॐ अथातः सं प्रवक्ष्यामि विद्यामपि महाबलाम्।
सर्वदुष्टप्रशमनीं सर्वशत्रुक्षयङ्करीम्।।25।।
दारिद्र् य दुःखशमनीं दौर्भाग्यव्याधिनाशिनीम्।
भूतप्रेतविशाचानां यक्षगन्धर्वरक्षसाम्।। 26।।
डाकिनी-शाकिनी-स्कन्द-कूष्माण्डानां च नाशिनीम्।
महारौद्रीं महाशक्तिं सद्यः प्रत्ययकारिणीम्।।27।।
गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वस्वं पार्वतीपतेः।
तामहं ते प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः शृणु।।28।।
एकाह्निकं द्व् याह्निकं च चातुर्थिकार्द्धमासिकम्।
द्वैमासिकं त्रैमासिकं तथा चातुर्मासिकम्।।29।।
पाञ्चमासिकं षाड्मासिकं वातिकं पैत्तिकं ज्वरम्।
श्लैष्मिकं सान्निपातिकं तथैव सततं ज्वरम्।।30।।
मौहूर्तिकं पैत्तिकं शीतज्वरं विषमज्वरम्।
द्व् याह्निकं त्र्याह्निकं चैव ज्वरमकाह्निकं तथा।
क्षिप्रं नाशयते नित्यं स्मरणादपराजिता।।31।।
ॐ ह्रीं हन हन , कालि शर शर, गौरि धम धम, विद्ये आले माले ताले गन्धे बन्धे पच पच, विद्ये नाशय नाशय, पापं हर हर संहारय वा दुःस्वप्नविनाशिनि कमलस्थिते, विनायकमातः, रजनि सन्ध्ये, दुन्दुभिनादे, मानसवेगे, शङ्खिनि, चक्रिणि गदिनि, वज्रिणि, शूलिनि, अपमृत्युविनाशिनि, विश्वेश्वरी, द्रविडि, द्राविडि, द्रविणि, द्राविणि, केशवदयिते, पशुपतिसहिते, दुन्दुभिदमनि, दुर्म्मददमनि, शबरि किराति मातङ्गि ॐ द्रं द्रं ज्रं ज्रं क्रं क्रं तुरु तुरु, ॐ द्रं कुरु कुरु। ये मां द्विषन्ति प्रत्यक्षं वा परोक्षं वा तान् सर्वान् दम दम मर्दय मर्दय , तापय तापय, गोपय गोपय, पातय पातय, शोषय शोषय, उत्सादय उत्सादय, ब्रह्माणि वैष्णवि, माहेश्वरि कौमारि, वाराहि नारसिंहि, ऐन्द्रि चामुण्डे, महालक्ष्मि वैनायकि, औपेन्द्रि आग्नेयि, चण्डि नैऋति, वायव्ये सौम्ये, ऐशानि , ऊर्ध्वमधो रक्ष, प्रचण्डविद्ये इन्द्रोपेन्द्रभगिनि।
ॐ नमो देवि जये विजये शान्ति-स्वस्ति-तुष्टि-पुष्टि-विवर्धिनि, कामाङ्कुशे, कामदुघे, सर्वकावरप्रदे, सर्वभूतेषु मां प्रियं कुरु कुरु स्वाहा। आकर्षणि, आवेशनि, ज्वालामालामालिनि, रमणि, रामणि, धरणि, धारिणि, तपनि, तापिनि, मदनि, मादिनि, शोषिणि, सम्मोहिनि, नीलपताके, महानीले, महागौरि, महाश्रिये, महाचान्द्रि, महासौरि, महामयूरि, आदित्यरश्मि, जाह्नवि, यमघण्टे, किणि किणि चिन्तामणि, सुगन्धे, सुरभे, सुरासुरोत्पन्ने, सर्वकामदुघे, यद्यथा मनीषितं कार्यं तन्मम सिद्ध्यतु स्वाहा।
ॐ स्वाहा, ॐ भूः स्वाहा, ॐ भुवः स्वाहा, ॐ स्वः स्वाहा, ॐ महः स्वाहा, ॐ जनः स्वाहा, ॐ तपः स्वाहा, ॐ सत्यं स्वाहा,
ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा।
यत एवागतं पापं तत्रैव प्रति गच्छतु स्वाहेत्योम्।
अमोघैषा महाविद्या वैष्णवी चापराजिता।।32।।
स्वयं विष्णुप्रणीता च सिद्धेयं पाठतः सदा।
एषा महाबला नाम कथिता तेपराजिता।।33।।
नानया सदृशी रक्षा त्रिषु लोकेषु विद्यते।
तमोगुणमयी साक्षाद्रौद्री शक्तिरियं मता।।34।।
कृतान्तोपि यतो भीतः पादमूले व्यवस्थितः।
मूलधारे न्यसेदेतां रात्रावेनं च संस्मरेत्।।35।।
नीलजीमूतसङ्काशां तडित्कपिलकेशिकाम्।
उद्यदादित्यसङ्काशां तडित्कपिलकेशिकाम्।
उद्यदादित्यसङ्काशां नेत्रत्रयविराजिताम्।।36।।
शक्तिं त्रिशूलं शङ्खं च पानपात्रं च विभ्रतीम्।
व्याघ्रचर्मपरिधानां किङ्किणीजालमण्डिताम्।।37।।
धावन्तीं गगनस्यान्तः तादुकाहितपादकाम्।
दंष्ट्रकरालवदनां व्यालकुण्डलभूषिताम्।।38।।
व्यात्तवक्त्रां ललज्जिह्वां भृकुटिकुटिलालकाम्।
स्वभक्तद्वेषिणां रक्तं पिबन्तीं पानपात्रतः।।39।।
सप्तधातून् शोषयन्तीं क्रूरदृष्ट्या विलोकनात्।
त्रिशूलेन च तज्जिह्वां कीलयन्तीं मुहुर्मुहुः।।40।।
पाशेन बद्ध्वा तं साधमानवन्तीं तदन्तिके।
अर्धरात्रस्य समये देवीं ध्यायेन्महाबलाम्।।41।।
यस्य यस्य वदेन्नाम जपेन्मन्त्रं निशान्तके।
तस्य तस्य तथावस्थां कुरुते सापि योगिनी।।42।।
 बले महाबले असिद्धसाधनी स्वाहेति, अमोघां पठति सिद्धां श्रीवैष्णवीम्, श्रीमदपराजिताविद्यां ध्यायेत्।।43।।
दुःस्वप्ने दुरारिष्टे च दुर्निमित्ते तथैव च।
व्यवहारे भवेत्सिद्धिः पठेद्विघ्नोपशान्तये।।44।।
यदत्र पाठे जगदम्बिके मया
विसर्गबिन्द्वक्षरहीनमिडितम्।
तदत्र संपूर्णतमं प्रयान्तु मे
सङ्कल्पसिद्धिस्तु सदैव जायताम्।।45।।
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशासि महेश्वरि।
यादृशासि महादेवि तादृशायै नमो नमः।।46।।
ओम् नमो नारायणाय 

Friday, July 9, 2021

अथ चंद्र स्त्रोत्रं

श्वेताम्बर: श्वेतवपु: किरीटी, श्वेतद्युतिर्दण्डधरो द्विबाहु: ।

 चन्द्रो मृतात्मा वरद: शशांकःश्रेयांसि मह्यं प्रददातु देव: ।।1।। 
दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णवसम्भवम । 
नमामि शशिनं सोमं शम्भोर्मुकुटभूषणम ।।2।।
क्षीरसिन्धुसमुत्पन्नो रोहिणी सहित: प्रभु: ।
हरस्य मुकुटावास: बालचन्द्र नमोsस्तु ते ।।3।।
सुधायया यत्किरणा: पोषयन्त्योषधीवनम ।
सर्वान्नरसहेतुं तं नमामि सिन्धुनन्दनम ।।4।।
राकेशं तारकेशं च रोहिणीप्रियसुन्दरम ।
ध्यायतां सर्वदोषघ्नं नमामीन्दुं मुहुर्मुहु: ।।5।।
 इति मन्त्रमहार्णवे चन्द्रमस: स्तोत्रम 

नवग्रह कवचम्

ॐ शिरो में पातु मार्तण्ड: , कपालं रोहिणी पति:।

मुखमंगारकः पातु कण्ठं च शशिनंदनः।।

बुद्धिं जीवः सदा पातु हृदयं भृगुनंदनः।

जठरं च शनिः पातु जिव्हां मे दितिनंदनः।।

पादौ केतुः सदा पातु वाराः सर्वांगमेव च।

तिथयौष्टौ दिशः पान्तु नक्षत्राणि वपुः सदा।।

अंसौ राशिः सदा पातु योग्श्च स्थैर्यमेव च।
सुचिरायुः सुखी पुत्री युद्धे च विजयी भवेत्।।

रोगात्प्रमुच्यते रोगी बन्धो मुच्येत बन्धनात्।

श्रियं च लभते नित्यं रिष्टिस्तस्य न जायते।।

पठनात् कवचस्यास्य सर्वपापात् प्रमुच्यते।

मृतवत्सा च या नारी काकवन्ध्या च या भवेत्।।

जीववत्सा पुत्रवती भवत्येव न संशयः।

एतां रक्षां पठेद्यस्तु अंगं स्पृष्टवापि वा पठेत्।।


शनि कवचम्

अस्य श्रीशनैश्चर कवच स्तोत्रमंत्रस्य कश्यप ऋषि:, अनुष्टुप् छन्द: शनैश्चरो देवता । 
श्रीं शक्ति: शूं कीलकम्, शनैश्चर प्रीत्यर्थे पाठे विनियोग: ।।

नीलाम्बरो नीलवपु: किरीटी गृध्रस्थितत्रासकरो धनुष्मान्।।
चतुर्भुज: सूर्यसुत: प्रसन्न: सदा मम स्याद्वरद: प्रशान्त:।।1।।

श्रृणुध्वमृषय: सर्वे शनिपीडाहरं महत् ।।
कवचं शनिराजस्य सौरेरिदमनुत्तमम् ।।2।।

कवचं देवतावासं वज्रपंजरसंज्ञकम्।।
शनैश्चरप्रीतिकरं सर्वसौभाग्यदायकम् ।।3।।

ॐ श्रीशनैश्चर: पातु भालं मे सूर्यनंदन: ।।
नेत्रे छायात्मज: पातु कर्णो यमानुज: ।।4।।

नासां वैवस्वत: पातु मुखं मे भास्कर: सदा ।।
स्निग्धकण्ठश्च मे कण्ठ भुजौ पातु महाभुज: ।।5।।

स्कन्धौ पातु शनिश्चैव करौ पातु शुभप्रद:।।
वक्ष: पातु यमभ्राता कुक्षिं पात्वसितस्थता ।।6।।

नाभिं गृहपति: पातु मन्द: पातु कटिं तथा ।।
ऊरू ममाSन्तक: पातु यमो जानुयुगं तथा ।।7।।

पदौ मन्दगति: पातु सर्वांग पातु पिप्पल: ।।
अंगोपांगानि सर्वाणि रक्षेन् मे सूर्यनन्दन: ।।8।।

इत्येतत् कवचं दिव्यं पठेत् सूर्यसुतस्य य: ।।
न तस्य जायते पीडा प्रीतो भवन्ति सूर्यज: ।।9।।

व्ययजन्मद्वितीयस्थो मृत्युस्थानगतोSपि वा ।।
कलत्रस्थो गतोवाSपि सुप्रीतस्तु सदा शनि: ।।10।।

अष्टमस्थे सूर्यसुते व्यये जन्मद्वितीयगे ।।
कवचं पठते नित्यं न पीडा जायते क्वचित् ।।11।।

इत्येतत् कवचं दिव्यं सौरेर्यन्निर्मितं पुरा ।।
जन्मलग्नस्थितान्दोषान् सर्वान्नाशयते प्रभु: ।।12।।

गणपति अथर्वशीर्षम्

ॐ नमस्ते गणपतये।
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि।।
त्वमेव केवलं कर्त्ताऽसि।
त्वमेव केवलं धर्तासि।।
त्वमेव केवलं हर्ताऽसि।
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि।।1।।

त्वं साक्षादत्मासि नित्यम्।
ऋतं वच्मि।। सत्यं वच्मि।।
अव त्वं मां।। अव वक्तारं।।
अव श्रोतारं। अवदातारं।।
अव धातारम अवानूचानमवशिष्यं।।2।।

अव पश्चातात्।। अवं पुरस्तात्।।
अवोत्तरातात्।। अव दक्षिणात्तात्।।
अव चोर्ध्वात्तात।। अवाधरात्तात।।
सर्वतो मां पाहिपाहि समंतात् ।।3।।

त्वं वाङग्मयचस्त्वं चिन्मय।
त्वं वाङग्मयचस्त्वं ब्रह्ममय:।।
त्वं सच्चिदानंदा द्वितियोऽसि।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि।।4।।

सर्व जगदि‍दं त्वत्तो जायते।
सर्व जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति।
सर्व जगदिदं त्वयि लयमेष्यति।।
सर्व जगदिदं त्वयि प्रत्येति।।
त्वं भूमिरापोनलोऽनिलो नभ:।।
त्वं चत्वारिवाक्पदानी ।।5।।

त्वं गुणयत्रयातीत: त्वमवस्थात्रयातीत:।
त्वं देहत्रयातीत: त्वं कालत्रयातीत:।
त्वं मूलाधार स्थितोऽसि नित्यं।
त्वं शक्ति त्रयात्मक:।।
त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यम्।
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं।
वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुव: स्वरोम् ।।6।।

गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरं।।
अनुस्वार: परतर:।। अर्धेन्दुलसितं।।
तारेण ऋद्धं।। एतत्तव मनुस्वरूपं।।
गकार: पूर्व रूपं अकारो मध्यरूपं।
अनुस्वारश्चान्त्य रूपं।। बिन्दुरूत्तर रूपं।।
नाद: संधानं।। संहिता संधि: सैषा गणेश विद्या।।
गणक ऋषि: निचृद् गायत्रीछंद:।। ग‍णपति देवता।।
ॐ गं गणपतये नम: ।।7।।

एकदंताय विद्महे। वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नोदंती प्रचोद्यात।।
एकदंत चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम्।।
अभयं वरदं  हस्तै र्विभ्राणं मूषक ध्वजम्।।
रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।।
रक्त गंधाऽनुलिप्तागं रक्तपुष्पै सुपूजितम् ।।8।।

 भक्तानुकंपिन देवं जगत्कारणम्च्युतम्।।
आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृतै: पुरुषात्परम।।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनांवर:।। 9।।

नमो व्रातपतये नमो गणपतये।। नम: प्रथमपत्तये।।
नमस्तेऽस्तु लंबोदारायैकदंताय विघ्ननाशिने शिव सुताय।
श्री वरदमूर्तये नमोनम:।।10।।

आदित्य हृदय स्त्रोत्रम्

 ततो युद्धपरिश्रन्तं समरे चिन्तया स्थितम्।

रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्॥ 01

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपागम्याब्रवीद्राममगस्त्यो भगवान् ऋषिः॥ 02

राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसि॥ 03

आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपेन्नित्यम् अक्षय्यं परमं शिवम्॥ 04

सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनम् आयुर्वर्धनमुत्तमम्॥ 05

रश्मिमंतं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्॥ 6

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः॥ 07

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः॥ 08


पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुर्वह्निः प्रजाप्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः॥ 09

आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः॥ 10

हरिदश्वः सहस्रार्चि: सप्तसप्ति-मरीचिमान।
तिमिरोन्मन्थन: शम्भुस्त्वष्टा मार्ताण्ड अंशुमान॥ 11

हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनो भास्करो रविः।
अग्निगर्भोsदिते: पुत्रः शंखः शिशिरनाशान:॥ 12

व्योम नाथस्तमोभेदी ऋग्य जुस्सामपारगः।
धनवृष्टिरपाम मित्रो विंध्यवीथिप्लवंगम:॥ 13

आतपी मंडली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजाः रक्तः सर्वभवोद्भव:॥ 14

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्नमोस्तुते॥ 15

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रए नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः॥ 16
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाए नमो नमः।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः॥ 17

नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय मार्तण्डाय नमो नमः॥ 18

ब्रह्मेशानाच्युतेषाय सूर्यायादित्यवर्चसे।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः॥ 19

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषाम् पतये नमः॥ 20

तप्तचामिकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे।
नमस्तमोsभिनिघ्नाये रुचये लोकसाक्षिणे॥ 21

नाशयत्येष वै भूतम तदेव सृजति प्रभुः।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः॥ 22

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।
एष एवाग्निहोत्रम् च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम॥ 23

वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतुनाम फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः॥ 24

एन मापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन पुरुष: कश्चिन्नावसीदति राघव॥ 25

पूज्यस्वैन-मेकाग्रे देवदेवम जगत्पतिम।
एतत त्रिगुणितम् जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि॥ 26

अस्मिन क्षणे महाबाहो रावणम् तवं वधिष्यसि।
एवमुक्त्वा तदाsगस्त्यो जगाम च यथागतम्॥ 27

एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोsभवत्तदा।
धारयामास सुप्रितो राघवः प्रयतात्मवान ॥ 28

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परम हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान॥ 29

रावणम प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत।
सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतोsभवत्॥ 30

अथ रवि-रवद-न्निरिक्ष्य रामम। मुदितमनाः परमम् प्रहृष्यमाण:।
निशिचरपति-संक्षयम् विदित्वा सुरगण-मध्यगतो वचस्त्वरेति॥ 31