मै मधुप मेरे मधुमय सरोज
गहरे जल में उत्पन्न ,सहज
खिलते ,मुरझाते रोज
तुम तो प्रतीक सुन्दरता के ,
देखी क्यों तुम जाने की राह |
मुझे मिट जाने की चाह ||
मै भ्रमर मीत गीतों का
स्पुटित कमल में बंद आज
अनुभव करता हूँ ,सुख का |
जैसे कोई अनुरागी ,बंधा
मोहपासों में ,करे हलाहल पान
नहीं मर मिटने की परवाह |
मुझे मिट जाने की चाह ||
महा अंध तम में बिता प्रथम प्रहर
कर दूँ विछिन्न इन मंजुल पंखुडियो को
कर सकता हूँ विद्ध कठोर कास्ट को|
पानी बचा रहे अपना,
लहू क़ी कुछ भी न परवाह |
मुझे मिट जाने की चाह |
क्या कोमल कलियों को विछिन्न कर ,
विश्वजीत कहलाऊंगा मै?
कलियों का रस पान किया है मैंने
यह कुकृत्य कर नाम मिटाऊंगा?
नहीं मिलेगा संबल कोई
भरना होगा आह |
मुझे मिट जाने क़ी चाह ||
राजेंद्र रामनाथ मिश्र
No comments:
Post a Comment