Tuesday, January 11, 2011

मुझे मिट जाने क़ि चाह |

मै  मधुप मेरे मधुमय सरोज
 गहरे जल में उत्पन्न ,सहज
 खिलते ,मुरझाते रोज
 तुम तो प्रतीक सुन्दरता के ,
देखी क्यों तुम जाने की राह |
मुझे मिट जाने की  चाह ||

 मै भ्रमर मीत गीतों का
स्पुटित कमल में बंद आज
 अनुभव करता हूँ ,सुख का |
 जैसे कोई अनुरागी ,बंधा
 मोहपासों में ,करे हलाहल पान
नहीं मर मिटने की परवाह | 
मुझे मिट जाने की  चाह ||

महा अंध  तम में बिता प्रथम प्रहर
कर दूँ विछिन्न इन मंजुल पंखुडियो को 
कर सकता हूँ विद्ध कठोर कास्ट को|
पानी बचा रहे अपना,
लहू क़ी कुछ भी न परवाह |
मुझे मिट जाने की  चाह |

क्या कोमल कलियों को विछिन्न कर ,
विश्वजीत कहलाऊंगा मै?
कलियों  का रस पान किया है मैंने 
यह कुकृत्य कर नाम मिटाऊंगा?
नहीं मिलेगा संबल कोई 
 भरना होगा आह |
 मुझे मिट जाने क़ी चाह ||
                                    राजेंद्र रामनाथ मिश्र


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