हे ,पवन ! प्रकृति के छंद ,
मंद क्रंदन को ,
आहत -पीड़ित -व्यथित
आह , चिंतन को ||
स्मरण दिला दो मानव को
उसके कर्त्तव्य प्रकृति के प्रति
अब नहीं चलेगी अधिक समय
उसकी अभिमानी वक्र गति ||
मै तरु मेरा है हरित रक्त
पर मानव का है रक्त ,रक्त
दोनों में अनिल समान भाव
हँ दोनों के हो प्राणधार ||
याद दिला दो मानव को
मै उसे सदा अर्पित करता
कर्त्तव्य समझ निज जीवन का
फल- फूल- मूल डाली-पत्ता
हे पवन ! मित्र मानव के
संरक्षक मेरे त्राहि -त्राण |
तुम दोनों के जीवन स्वरुप
मनुज-विटप मध्यस्थ प्राण ||
जब विटप-विहीन मही होगी
मानव का होगा महानाश !
जीवन संभव जग में होगा
वृक्षों से मिलती रहे साँस ||
मंद क्रंदन को ,
आहत -पीड़ित -व्यथित
आह , चिंतन को ||
स्मरण दिला दो मानव को
उसके कर्त्तव्य प्रकृति के प्रति
अब नहीं चलेगी अधिक समय
उसकी अभिमानी वक्र गति ||
मै तरु मेरा है हरित रक्त
पर मानव का है रक्त ,रक्त
दोनों में अनिल समान भाव
हँ दोनों के हो प्राणधार ||
याद दिला दो मानव को
मै उसे सदा अर्पित करता
कर्त्तव्य समझ निज जीवन का
फल- फूल- मूल डाली-पत्ता
हे पवन ! मित्र मानव के
संरक्षक मेरे त्राहि -त्राण |
तुम दोनों के जीवन स्वरुप
मनुज-विटप मध्यस्थ प्राण ||
जब विटप-विहीन मही होगी
मानव का होगा महानाश !
जीवन संभव जग में होगा
वृक्षों से मिलती रहे साँस ||
राजेन्द्र रामनाथ मिश्र
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